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क्रोध उवाच: प्रबोधचंद्र नाटक का पात्र ‘क्रोध’ स्वयं का परिचय देते हुए

भूमिका

प्रबोधचंद्र नाटक

प्रबोधचंद्र नाटक की रचना मूल संस्कृत में पंडित श्रीकृष्ण मिश्र जी ने सन १११६ में की थी. प्रबोध चन्द्रोदय नाटक का आसन संस्कृत-साहित्य में अती ऊँचा है. इसमें महामोह, काम, कोध, लोभ, मद, विवेक, वैराग्य, सम्तोष, विष्णु -भक्ति, सरस्वती, श्रद्धा, शान्ति इत्यादि नाटक के पात्र हैं । सन १७८९ में पंडित गुलाब सिंघ नें (जो सत्रहवीं सदी के प्रख्यात विद्वानों में गिने जाते थे) इस नाटक का ब्रिज भाषा में अनुवाद करके इस नाटक को बहुत बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचाकर उन्हें लाभाविंत किया.

गीता के एक प्रसंग में भगवान् कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं –

सङ्गात्‌ कामः सञ्जायते। कामात्‌ क्रोधः अभिजायते।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

अर्थात् काम, क्रोध, मोह के आवेश से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश से मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है ।

इसी सर्वनाश से बचने का उपाय इस नाटक में है ।

मोह राजा और विवेक राजा (ज्ञान, आत्मज्ञान) की जंग हो रही थी और विवेक राजा जंग जीत रहा था. मोह राजा की हार हो रही थी. बड़ा दुखी बैठा था. क्रोध मोह के पास आया बोला “राजन क्यूँ दुखी हो? मोह कहता है देखते नहीं कि हार हो रही है. विवेक की सेना जीत रही है. शांति आगे बढ़ रही है, ज्ञान आगे बढ़ रहा है, निर्वैरता आगे बढ़ रही है, प्रेम आगे बढ़ रहा है. अपन तो हारते जा रहे हैं. इर्ष्या हारती जा रही है, निंदा हारती जा रही है, संताप, व्याकुलता, चिंता हारते जा रहे हैं. वो जीतते जा रहे हैं. क्रोध ने कहा “मैं मौजूद हूँ. मोह कहता है बड़े बड़े सीपा सालाह मारे गए. काम मारा गया, लोभ मारा गया. तू क्या करेगा?

यहाँ पंडित गुलाब सिंह महाराज लिखते हैं “क्रोध उवाच” – क्रोध बोला राजन सुनों मैं क्या कर सकता हूँ. आप मायूस ना हो. जब मोह कहता है उधर विवेक है, ज्ञान है, शुद्ध है, बुद्ध है, प्रेम है, श्रद्धा है, भावना है, भक्ती है. तू क्या करेगा? तू क्या कर सकता है? क्रोध उवाच. क्रोध बोला मैं क्या कर सकता हूँ सुनो.

अंध करूं द्रिग्वंन्तन को सुत्वन्तन को बदरो कर डारों
नित्वंतन को सो अधीर करूँ और चातर की मति दूर निवारूं
हितकारज नाहिं किथे कबहिं जिनके उर भीतर मैं पग धारों
हित आतम को न सुने कबहूं पढ़यो जितनों खिन मां हि बिसारो

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